एक अजनबी महक बसी है साँसों में
जो जाती नहीं
कोई रंजिश सी है इन हवाओं से,
जो बिखरे एहसास ले जाती नहीं
हर लकीर इन गुस्ताख़ हांथों की
उसी का चेहरा बनाती हैं
और एक बेशर्म शाम हैं जो कभी
कोई पैगाम लाती नहीं.
एक दफा फिर से अब कैसे मैं प्यार
करूँ
हैं टूट चुके कई ख्वाब मेरे,
वापस कैसे खिलवाड़ करूँ
मैं कुछ भी कर लूं मेरी बाहों
से ये तड़प जाती नहीं
और ये कमबख्त कुछ उसकी रियायतें,
जो वो मुझे अपनाती नहीं.
Gaurav Kumar
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