Pages

Monday, July 11, 2016

ख़ामोशी


जाने कैसी अजीब सी ख़ामोशी है ये
मेरा वजूद ही मुझे सुन नहीं पाता है
अपने आप से ही बातें करता रहता हूँ मैं
हर शख्स मुझे मेरा कातिल नजर आता है


भागता रहता हूँ मैं खुद ही खींची दहलीजों से
मेरा अपना साया भी अब मुझे डराता है
नींद में टूटे ख्वाब, दिन में भी रुलाते हैं
जिनका पूरा होना और कही नजर आता है


सब खोकर भी कुछ खो सके थे,
पर अब सब पाकर भी सब खाली नजर आता है
कमी किसकी है मैं कह नहीं सकता
बस एक धुंधला पर्दा ख्वाहिशों के ऊपर नजर आता है


जाने वाला जा भी चुका, ये जनता हूँ मैं
और वो कभी अब वापस आने वाला है
पर शायद कुछ बातें हैं जो अब तक मुझमे जिन्दा हैं
वरना यहाँ तो एक उजड़ा हुआ शहर है, जो बस साँसे लेता नज़र आता है
                                                   
                                                    -Gaurav Yadav

No comments:

Post a Comment